कार्य और शिक्षा

 

 अगर परम प्रभु की यही 'इच्छा ' हे कि जो मेरे ऊपर आश्रित हैं उनमें मेरे लिए श्रद्धा न हो, तो मुझे कुछ नहीं कहना । मैं केवल अपनी निजी सचाई की पराकाष्ठा के लिए जिम्मेदार हू ।

 

१४ दिसम्बर १९३२

 

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क्या मेरी इच्छा को आपकी इच्छा के साथ एक करने का कोई उपाय नहीं है? शायद आपकी कोई विशेष इच्छा हो नहीं है क्योंकि आय कुछ नहीं चाहती ।

 

मैं पूरी तरह जानती हू कि मैं क्या चाहती हू या यूं कहूं कि भागवत 'इच्छा ' क्या हैं, और समय आने पर उसी की विजय होगी ।

 

११ मई, १९३४

 

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      मुझे आशा और विश्वास है कि आपका काम मनुष्यों, पर निर्भर नहीं है।

 

नहीं, वह मनुष्यों पर बिलकुल निर्भर नहीं है । जो किया जाना चाहिये वह सभी सम्भव बाधाओं के बावजूद किया जायेगा ।

 

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 केवल एक ही चीज है जिसके बारे मे मुझे पूरा विश्वास है, और वह है मैं कौन हू । श्रीअरविन्द भी यह जानते थे और उन्होंने इसकी घोषणा की थी । समस्त मानवजाति के सन्देह भी इस तथ्य मे कुछ न बदल सकेंगे ।

 

    लेकिन एक और चीज है जिसके बारे मे मुझे इतना विश्वास नहीं है -वह है मेरे, यहां सशरीर उस काम को करते हुए रहने की उपयोगिता, जो मैं कर रही हू । मैं उसे किसी निजी लालसा के कारण नहीं कर रही । श्रीअरविन्द ने मुझसे यह करने के लिए कहा था इसलिए मैं उसे परम प्रभु

 


 की आशा समझकर एक पवित्र कर्तव्य मानकर कर रही हू

 

        समय ही बनायेगा कि धरती ने इससे कितना लाभ उठाया है ।

 

२४ मई,  १९५१

 

 

 

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 एक पत्र का वस्तुपरक उत्तर

 

अगर परम चेतना अवतरित हुई है और वह अपने- आपको इस शरीर मे अभिव्यक्त कर रही है, तो सारी दुनिया के इन्कार उसे ऐसा होने से नहीं रोक सकते ।

 

और अगर ऐसा नहीं है, तो मेरी भौतिक सत्ता मे केवल उन्हीं लोगों को रुचि ' हो सकती है जिनमें श्रद्धा है और जो, इस श्रद्धा की सहायता से

 

    एक और पाठ मे '' उपयोग '' शब्द है ।
 

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मेरे द्वारा, ' परम चेतना ' के सम्पर्क मे आ सकते हैं ।

 

     इस प्रश्न का महत्त्व केवल उन्हीं लोगों के लिए है, डाकियों को इसके बारे मे सोचने की कोई जरूरत नहीं । सच्ची और प्रभावशाली होने के लिए इस प्रकार की श्रद्धा किसी प्रचार का विषय नहीं हो सकती, चाहे वह पक्ष मे हो या विपक्ष मे । उसका जन्म सहज और मुक्त होना चाहिये । उसे दबाव के द्वारा पाया नहीं जा सकता और इन्कार द्वारा मिटाया नहीं जा सकता ।

 

   जो किसी भी तरह की श्रद्धा या विकास के विरुद्ध प्रचण्ड रूप से लड़ने की जरूरत अनुभव करता है, वह इस तथ्य के द्वारा प्रमाणित करता है कि इस विश्वास ने उसकी सत्ता के किसी भाग को छुआ हे, चाहे वह कितना भी छोटा क्यों न हो, और उसका एक और भाग, जो ज्यादा महत्त्वपूणं और बाहरी है, उस श्रद्धा को स्वीकार करने से एकदम इन्कार करता है । वह उसे ज्यादा खतरनाक लगता है क्योंकि वह उसके प्रति अधिक संवेदनशील है, और उसका निषेध करने की इच्छा उसके बारे मे अपने- आपको विश्वास दिलाते की आवश्यकता से आती है ।

 

     अपनी दृष्टि सें, मैं जानती हू कि मैं क्या हू । लेकिन इस ज्ञान का मूल्य, जिसे मैं जीती हू, केवल मेरी सचाई मे हैं; और अकेले ' परम प्रभु ' हीं इस सचाई का मूल्यांकन कर सकते हैं ।

 

७ नवम्बर, १९५१

 

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मैं जानती हू कि मैं बहुत कुछ नहीं कर सकती- आश्चर्यों और चमत्कारों के लिए मनुष्यों की कामना को सन्तुष्ट नहीं कर सकतीं । एक समय था जब मैं यह कर सकतीं थीं और करती भी थी । लेकिन उसके लिए व्यक्ति को प्राणिक चेतना मे रहना पड़ता है और प्राणिक शक्तियों का उपयोग करना पड़ता है, और यह बहुत वांछनीय नहीं है ।

 

२३ जनवरी, १९५२

 

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मेरे बारे मे कहा जायेगा : '' वह महत्त्वकांक्षी थी, वह सारे जगत् का
 

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रूपान्तर करना चाहती थीं । '' लेकिन दुनिया रूपान्तरित होना नहीं चाहती, चाहे भी तो एक बहुत लम्बी और धीमी प्रक्रिया से, इतनी धीमी कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी मे कोई फक न मालूम हो ।

 

     मैं देखती हू कि प्रकृति देर लगाती और अपव्यय करती है । लेकिन उसे लगता है कि मैं बहुत ज्यादा जल्दी मचाती हू और बहुत तकलीफ देनेवाली एज आग्रही हू

 

      मुझे जो कुछ कहना हैं उस सबको लिख दूं; जो कुछ होनेवाला है वह सब पहले सें बतला दूं, और तब, अगर किसी को यह लगे कि मैं उसे ठीक तरह नहीं कर रही हू, तो मैं निवृत्त हो जाऊंगी और दूसरों को करने दूंगी ।

 

३१ मार्च, १९५३

 

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 मैं इस बात से इन्कार नहीं करती कि तुम्हारा श्रीअरविन्द की किसी चीज के साथ सम्बन्ध है, उस चीज के साथ जिसे तुम्हारे बारे मे और तुम जो कर रहे हों उसमें रुचि थी । यह चीज अमरीका मे और दूसरी जगहों पर तुम्हें प्रेरणा देने और तुम्हारे काम मे सहायता करने के लिए तुम्हारे साथ रह गयी होगी । लेकिन यह केवल एक अंश, उन श्रीअरविन्द का बहुत, बहुत ही छोटा अंश है जिन्हें मैं जानती हू, जिनके साथ मैं सशरीर तीस वर्ष तक रही हू, जिन्होने मुझे नहीं छोड़ा है, क्षण- भर के लिए भी नहीं छोडा-क्योकि वे अब भी दिन-रात मेरे साथ हैं । वे मेरे मस्तिष्क से सोचते हैं, मेरी कलम से लिखते हैं, मेरे मुख सें बोलते हैं और मेरी संगठन-शक्ति के दुरा काम करते हैं ।

 

५ मई, १९५३

 

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 अवतार की सम्भावना पर विश्वास करने या न करने से प्रकट तथ्य मे कोई फर्क नहीं पड़ता । अगर भगवान् किसी मानव शरीर मे अभिव्यक्त होना पसन्द करते हैं, तो मेरी समझ मे नहीं आता कि को भी मानव विचार, स्वीकृति या अस्वीकृति उनके निर्णय मे रंचमात्र प्रभाव भी कैसे

 

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 डाल सकते हैं; और अगर वे मानव शरीर मे जन्म लेते हैं, तो मनुष्यों की अस्वीकृति तथ्य को तथ्य होने से नहीं रोक सकती । तो इसमें उत्तेजित होने की बात ही क्या है? चेतना केवल पूर्ण शान्त-स्थिरता और नीरव निश्चलता मे, पक्षपातों और पन्नों से मुक्त होकर ही सत्य को जान सकतीं है ।

 

२४ सितम्बर १९५३

 

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मेरे अवतार होने के बारे मे, लोगों की राय का कैसे कोई महत्त्व हो सकता है?

 

      अगर मैं (अवतार) नहीं हू, तो हजारों भक्तों का विश्वास भी मुझे अवतार नहीं बना सकता । दूसरी ओर, अगर मैं अवतार हू, तो सारी दुनिया का इन्कार भी मुझे अवतार होने से रोक नहीं सकता ।

 

२५ सितम्बर, १९५३

 

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एक अपरिहार्य न्याय है ।

 

       यहां एक 'चेतना ' कार्यरत है । हर व्यक्ति जब कभी इस भागवत 'चेतना ' के विरुद्ध जाता है तो हर बार अपनी चेतना का एक अंश खो बैठता है । वह जब-जब उसके विरुद्ध कुछ करता है तो नीचे जाता है । हर व्यक्ति जब कभी इस दिव्य ' चेतना ' के अनुसार चलता है तो अपनी चेतना मे कुछ प्राप्त करता है ।

 

     दुनिया जैसी हैं वैसी चलती रहती हैं । जब हम-तुम उसे बदलने के लिए कुछ भी नहीं कर सकते, तो हम केवल चुपचाप, ब्रह्म की तरह मूक साक्षी रह सकते हैं । जैसा दुनिया मे है वैसा ही यहां भी । इतनी सारी चीजें होती रहती हैं : हर एक अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करना चाहता है सब तरह की राजनीति हे, प्रोपेगेंडा है । मैं केवल ब्रह्म की तरह साक्षी होकर देखती हू; मैं न पक्ष मे हू, न विरोध मे, न मैं अनुमति देती हू, न निन्दा करती हू

 

२६ अप्रैल १९५५

 

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मेरे लिए मानव-जीवन मे सब कुछ मिलाजुला है, कोई चीज पूरी तरह अच्छी नहीं है, कोई चीज पूरी तरह बुरी नहीं है । मैं इस विचार या उस विचार को, इस उद्देश्य या उस उद्देश्य को अपना पूरा और ऐकान्तिक समर्थन नहीं दे सकती । काम मे, मेरे लिए एकमात्र महत्त्वपूर्ण चीज हे श्रीअरविन्द का काम । मेरा सचेतन समर्थन अपने- आप उस सबके साथ होता है जो उस काम मैं सहायक हो ओर वह सहायता के अनुपात मे होता है । और कार्य जिस तरह होना चाहिये उस तरह चलाने के लिए मुझे समस्त सहयोगों और सहायता की जरूरत है । मैं केवल इस या उस को स्वीकार करके बाकी को अस्वीकार नहीं कर सकती । मैं इस दल या उस दल की नहीं हो सकती । मैं केवल भगवान् की हू और धरती पर मेरा कार्य मातों और दलों की परवाह किये बिना, भगवान् की विजय के लिए है और हमेशा रहेगा ।

 

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 २१ फरवरी, १९५६

 

     बुधवार के सम्मिलित ध्यान मे

 

आज की सांझ तुम्हारे बीच मे भगवान् की ठोस और भौतिक ' उपस्थिति ' विद्यमान थी । मेरा रूप जीवित स्वर्ण का था, सारे विश्व से बड़ा, ओर मैं एक बहुत बड़े और विशालकाय सोने के दरवाजे के सामने खड़ी धी जो जगत् को भगवान् से अलग करता हैं ।

 

       जैसे हीं मैंने दरवाजे पर नजर डाली, मैंने चेतना की एक हो गति मे जाना और संकल्प किया कि '' अब समय आ गया है '', और दोनों हाथों से एक बहुत बड़ी सोने की हथौड़ी उठाकर मैंने एक प्रहार किया, दरवाजे पर एक ही प्रहार और दरवाजा टुकड़े-टुकड़े हो गया ।

 

         तब अतिमानसिक ' ज्योति ' । ' शक्ति ' और ' चेतना ' धरती पर अबाध प्रवाह के रूप मे बह निकली ।

 

१९५६

 

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           जब परम प्रभु ने आपसे जगत् का निर्माण करने के लिए कहार तो आपने कैसे जाना कि क्या करना चाहिये?

 

उसके लिए मुझे कुछ भी नहीं सीखना. पड़ा, क्योंकि परम प्रभु के अपने अन्दर सब कुछ है : संपूर्ण जगत् जगत् का ज्ञान और उसे बनाने की शक्ति । जब उन्होंने निश्चय किया कि एक जगत् बने, तो पहले उन्होंने जगत् के ज्ञान और उसे बनाने की शक्ति को पैदा किया, वह मैं हू, और तब उन्होंने मुझे उसे बनाने की आज्ञा दी ।

 

२५ सितम्बर, १९५७

 

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          आप हमारी तरह क्यों आयी? आप सचमुच जैसी हैं उस तरह क्यों वर्ही आयी?

 

 क्योंकि अगर मैं तुम्हारी तरह न आती, तो मैं कभी तुम्हारे निकट न हो पाती और मैं तुमसे यह न कह पाती : ''मैं जो हू वह बनो । ''

 

२७ सितम्बर, १९५७

 

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        माताजी ''क्या आप भगवान् हैं ? '' इस प्रश्न का आपका क्या उत्तर हे ?

 

 यह प्रश्न किसी भी मनुष्य से पूछा जा सकता है और उसका उत्तर होगा : हां, संभावना के रूप मे

 

        और हर एक का काम है इसे वास्तविक तथ्य बनाना ।

 

अगस्त, १९६६

 

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मैं नहो जानती कि मैं शक्तिशाली हू या नहीं (क्योंकि यह निश्चित नहीं हैं कि यह ''मैं '' कहां है) लेकिन प्रभु सर्वशक्तिमान् हैं । विश्वास सभी सन्देहों

 

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से परे है और प्रभु मामले को देख रहे हैं ।

 

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आप अपने शब्दों ये कुछ ऐसी चीज रखती हैं जो हमें उस ' सत्य ' को देखने- योग्य बना देती हे जिसे शब्द नहीं दे पाते आपके शब्दों के साथ क्या चीज होती है?

 

 चेतना ।

 

२७ दिसम्बर १९६७

 

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        जब मैं बोलती हूं, तो जो कहती हू उसे जीती हू और मे शब्दों के साथ उस अनुभव को देती हूं-कोई मशीन उसे अंकित नहीं कर सकतीं । इसीलिए लिखित उद्धरण पढ़ने या सुनने पर एकदम भिन्न मालूम होता है, मुख्य चीज चली जाती हैं, क्योंकि यह किसी भी अंकन के परे है । जब स्वयं मेरी लिखी हुई चीज लेख या पुस्तक के रूप मे छिपी जाती है, तब भी लिखते समय मुझे जो अनुभूति हुई थी उसकी तीव्रता चली जाती है, और लिखी हुई चीज नीरस मालूम होती है, यद्यपि शब्द बिलकुल वही होते हैं ।

 

          भौतिक ' उपस्थिति ' का यहीं वास्तविक उद्देश्य है, उसका निर्विवाद महत्त्व ।

 

 

 मेरे शब्दों को शिक्षा के रूप मे न लो । वे कर्म के पीछे की शक्ति होते हैं जिन्हें निश्चित उद्देश्य के लिए कहा गया हे । उन्हें जब उस उद्देश्य से अलग किया जाता है तो वे अपनी सच्ची शक्ति खो बैठते हैं ।

 

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